प्रथम खंड : इस खंड में नरेन्द्र की पारिवारिक पार्श्वभूमि, उसपर बचपन में हुए संस्कार, अध्यात्म की ओर नरेन्द्र का झुकाव का मार्मिक चित्रण किया गया है। बचपन में नरेन्द्र को बिले कहकर संबोधित किया जाता था। जिज्ञासा, सजगता, साहस, उदारता ऐसे अनेक गुणों से युक्त बिले का प्राणियों के प्रति प्रेम, जाति विषयक विचार, संगीत में रूचि का मनोहर चित्रण लेखक ने किया है। महाविद्यालय में अध्ययन के दौरान नरेन्द्र की ठाकुर श्री रामकृष्ण परमहंस से भेंट हुईं और ईश्वर पर उसकी श्रद्धा दृढ़ होती गईं। नरेन्द्र ने गुरु के रूप में स्वीकार करने के लिए उसने किस तरह अपने गुरु को परखा, इसका सुन्दर वर्णन किया। परिव्राजक संन्यासी के रूप में सम्पूर्ण भारत का भ्रमण, तत्पश्चात शिकागो में आयोजित विश्व धर्म सभा में स्वामीजी की ओजस्वी वक्तृता, उनके यशोगाथा का सविस्तार, रोचक तथा दैदीप्यमान वर्णन लेखक ने इस प्रकार किया है कि अंतःकरण भावविभोर हो जाता है। इस यश के पीछे श्रीरामकृष्ण के देहत्याग के उपरान्त भी नरेन्द्र ठाकुर की अनुभूति होती रही और दैवी संकेत को रेखांकित करनेवाले प्रसंगों का वर्णन लेखक ने किया है वह आनंदविभोर करनेवाला है।
दूसरा खंड : इस खंड में 11 सितम्बर, 1893 से दिसंबर 1896 तक का कालखंड अमेरिका तथा इंग्लैंड में स्वामीजी के कार्य का विस्तारपूर्वक वर्णन पठनीय है। भारतीय संस्कृति का पाश्चात्य जगत में स्वामीजी ने केवल नींव ही नहीं राखी वरन उसे दृढ़ भी किया। स्वामीजी ने विविध देशों में भ्रमण किया और वहां सेवाकार्य का श्रीगणेश किया। स्वामीजी 30 दिसम्बर, 1896 को भारत लौटे। कोलम्बो से कोलकाता तक स्वामीजी का उत्साहपूर्वक स्वागत किया गया इसका वर्णन है। पाश्चात्य भोगवाद के किले को भेदकर वहां भारतीय अध्यात्म का ध्वज फहराकर वापस आते समय, इस तेजस्वी संन्यासी का स्वागत इस तरह किया गया मानो वह एक विजयी वीर हो। भारत के वैभवशाली विरासत को नई पहचान देकर भारत के सुप्त समाज को जाग्रत किया। स्वामीजी ने सम्पूर्ण विश्व में भारत और हिन्दू धर्म का जो गौरव बढ़ाया, इसका विवेचन इस खंड में विस्तारपूर्वक सन्दर्भ सहित प्रोफेसर श्री एस.एन.धर ने किया है।
तीसरा खंड : इस खंड में फरवरी, 1897 से जुलाई, 1902 के कालखंड में स्वामीजी के जीवन के अनेक प्रसंग और घटनाओं का सविस्तार वर्णन किया गया है। 20 जून, 1899 से 9 दिसम्बर, 1901 के दौरान स्वामीजी ने एकबार पुनः पश्चिम जगत दौरा किया। परन्तु यह प्रवास उनके स्वास्थ्य की दृष्टि से ठीक नहीं रहा। कुछ प्रमाण में वह सफल भी रहा। साथ ही बेलूर मठ के लिए निधि संकलन करना और पाश्चात्य जगत में अपने कार्य को सुदृढ़ कर उसे व्यवस्थित करना यह स्वामीजी का लक्ष्य था। इस प्रवास के दौरान स्वामी तुरीयानन्द और भगिनी निवेदिता उनके साथ थे। इस दौरान ‘अपने सपनों का भारत अपने सामर्थ्य से प्रगट हो’ यह विचार स्वामीजी ने निवेदिता के सम्मुख प्रगट किया। युवाओं के साथ अधिक से अधिक बोलने के लिए स्वामीजी सदा उत्साहित रहते थे। वापसी के दौरान मार्ग में जहाज ने मुम्बई के किनारे को स्पर्श किया तब स्वामीजी हर्षित थे। मायावती से लौटकर अपनी माँ की इच्छापूर्ति के लिए उन्होंने असम के अनेक धार्मिक स्थलों का प्रवास किया। इसके बाद आठ महीनों का समय उन्होंने बेलूर मठ में व्यतीत किया। इस समय वे अपने गुरु भाइयों को बार-बार कहा करते थे कि मेरा काम पूरा हो गया, मुझे जाने दो। मृत्यु मेरे सामने खड़ी है।
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